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क्या अस्त हो जाएगा मेनका गांधी और वरुण गांधी का राजनीतिक भविष्य?

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 क्या अस्त हो जाएगा मेनका गांधी और वरुण गांधी का राजनीतिक भविष्य?



हम भारती न्यूज से उत्तर प्रदेश चीफ व्यूरो प्रमुख धर्मेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की ख़ास खबर


नई दिल्ली मेनका संजय गांधी भारतीय राजनीति के प्रमुख घराना गांधी परिवार का ही एक हिस्सा हैं। वे इंदिरा गांधी के छोटे बेटे स्व. संजय गांधी की पत्नी हैं। पति संजय गांधी के आकस्मिक मृत्यु के बाद वे इंदिरा गांधी से अलग रहने लगी थीं।


मेनका की संजय गांधी से शादी और फिर उनके अलग रहने, की कथा बहुत लंबी है जिसका यहां जिक्र करना जरूरी नहीं है अभी बात सिर्फ मेनका गांधी के राजनीतिक सफर की। और यह भी कि लगातार तीन बार भारत के लोकसभा में मेनका और वरुण अर्थात मां बेटे की मौजूदगी साथ-साथ रहती थी जो 18 वीं लोकसभा में साथ साथ विदा हो गए। मां सुल्तानपुर से चुनाव लड़कर हार गई और बेटा पीलीभीत से टिकट से वंचित कर दिया गया। दोनों भाजपा में हैं।


सवाल उठता है कि क्या गांधी परिवार के इस अहम हिस्से की वाया भाजपा सक्रिय राजनीति में वापसी हो पाएगी या इन्हें जान बूझकर अलग थलग पर कर दिया गया? पति संजय गांधी की मृत्यु के बाद सन 1982 में राजनीति में आयीं मेनका गांधी ने संजय विचार मंच का गठन किया था और इसी बैनर तले खुद को गांधी परिवार से अलग एक राजनेत्री स्थापित

करने में जुट गईं। इसी बैनर पर उन्होंने पहला चुनाव अमेठी संसदीय सीट से अपने जेठ राजीव गांधी के खिलाफ लड़ा जिसमें उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा।


मेनका गांधी 1988 में जनता दल में शामिल हो गयीं और वे 1989 में दूसरा चुनाव जनता दल के टिकट पर पीलीभीत संसदीय सीट से लड़ीं और जीत गईं लेकिन उन्हें 1991 के संसदीय चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। यह मध्यावधि चुनाव था। वे जनता दल के टिकट पर 1996 में फिर पीलीभीत संसदीय सीट से

लड़ीं और कामयाब हुईं। किन्हीं कारणों से परिस्थितियां बदलीं और 1998 और 1999 में उन्हें पीलीभीत से ही निर्दल चुनाव लड़ना पड़ा। बतौर निर्दल प्रत्याशी वे दोनों बार जीतीं लेकिन इस दोनों बार उन्हें भाजपा का समर्थन हासिल था।


बता दें कि 1996 के बाद 1998 और 1999 में लगातार लोकसभा के दो मध्यावधि चुनाव हुए थे। दर असल यही वह साल था जब मेनका गांधी के भाजपा़ में दाखिल होने का मार्ग प्रशस्त हुआ। और अंततः 2004 में वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गईं। इस तरह करीब डेढ़ दशक बाद उनकी राजनीति की दूसरी पारी शुरू हो गई।


भाजपा के टिकट पर ही वे 2004 में पीलीभीत से, 2009 में आंवला से, 2014 में फिर पीलीभीत से तो 2019 में सुल्तानपुर संसदीय सीट से भाजपा प्रत्याशी के रूप में संसद पहुंचने में कामयाब होती रहीं। इधर जब बेटा वरुण राजनीति के लायक हुआ तो उसे 2009 में पीलीभीत से मैदान में उतार कर खुद आंवला चली गईं। पीलीभीत से बेटा और आंवला से मां जीतकर संसद पंहुचा गईं। 2014 में मेनका पीलीभीत चली गईं और वरुण सुलतानपुर। इस चुनाव में भी मां बेटे जीतकर संसद पंहुचे। 2019 में मां बेटे सीटें बदलकर एक दूसरे की सीट से लड़ने चले गए। बेटा वरुण पीलीभीत से जीता तो मेनका सुल्तानपुर से जीत गईं। इस तरह तीन मर्तवा मां बेटे एक साथ संसद में बिराजमान थे।


2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वरुण गांधी का टिकट काटकर पीलीभीत से जतिन प्रसाद को दे दिया जबकि सुल्तानपुर से उनकी मां मेनका गांधी का टिकट बरकरार रखा। भाजपा का टिकट बंटवारे का यह फैसला चकित करने वाला था कि 40 साल के युवा बेटे का टिकट काटकर करीब 67 साल की वृद्धि मां को टिकट दिया गया। उम्मीद थी कि इस फैसले पर मेनका गांधी भाजपा नेतृत्व से इतना तो कहेंगी ही कि यदि एक ही टिकट देना है तो बेटे को ही दीजिए लेकिन उन्होंने एक जबान नहीं कहा। ऐसा नहीं है कि पीलीभीत से टिकट कटना वरुण गांधी को अच्छा लगा होगा लेकिन उन्होंने इस दंश को सहा। वरुण गांधी अपने चुनाव

क्षेत्र में या कहीं भी किसी कार्यक्रम में बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार पर बोलने से नहीं चूकते थे लेकिन मोदी की तारीफ में कसीदे भी पढ़ते थे। वरुण की मुखरता ही उनके टिकट कटने की वजह बनी, यह सर्वविदित है।


टिकट कटने के बाद इस लोक सभा चुनाव में उनकी भूमिका को लेकर चर्चा शुरू हो गई थी। पार्टी नेतृत्व ने उन्हें प्रचार के लायक भी नहीं समझा। तमाम कयासों के बीच वे सुल्तानपुर अपनी मां की प्रचार में गए और मेनका गांधी को पूरे सुल्तानपुर की मां बताकर उन्हें जिताने की अपील की। सुल्तानपुर ने इस मां को खारिज कर सपा के बाहरी उम्मीदवार राम भुआल निषाद को जिता दिया। अगले लोकसभा चुनाव तक मेनका गांधी शायद चुनाव लड़ने की स्थिति में न रहें जबकि वरुण के सामन…

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