शरीर का परिवर्तन देखकर भी वैराग्य नहीं होना,सबसे बड़ी अज्ञानता- आचार्य विनोद जी महाराज
कथा को सुनकर श्रद्धालुओं की आंखें हुईं नम
हम भारती न्यूज़ से उत्तर प्रदेश चीफ व्यूरो प्रमुख धर्मेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की ख़ास ख़बर
सहजनवां गोरखपुर हरपुर बुदहट क्षेत्र के ग्राम सभा परमेश्वरपुर मे डीह बाबा के स्थान पर श्री राम कथा एवं श्री हनुमंत महायज्ञ का भव्य आयोजन में अयोध्या से पधारे आचार्य विनोद जी महाराज ने शारीरिक स्थिति का वर्णन करते हुए तथा विवेक के प्रथम सोपान को बताते हुए कहा कि- इन शरीरधारियों के शरीर को देखता हूं ।तो, मुझे आश्चर्य होता है कि - जब कोई दूसरे स्त्री पुरुष,किसी दूसरे को देखते हैं तो, कहते हैं कि- "ये देखो! ये बालक से युवा हो गया।ये युवावस्था से वृद्ध हो गया" ये देखो,ये वृद्ध तो अतिवृद्ध हो गया, वो वृद्ध मर गया, इत्यादि प्रकार से सभी स्त्री पुरुष,एक दूसरे को तो देखते हैं, किन्तु कोई भी स्त्री पुरुष, स्वयं के शरीर को देखकर,ये विचार नहीं करते हैं। कि - मैं बालक था।युवक हो गया, आज युवक हूं,कल वृद्ध हो जाऊंगा, अब मैं धीरे धीरे अतिवृद्ध होकर समाप्त हो जाऊंगा, इत्यादि प्रकार से स्वयं के लिए कोई भी स्त्री पुरुष, विचार नहीं करते हैं।
यही तो आश्चर्य है कि - जो स्त्री पुरुष, दूसरों को देखकर,जैसा विचार करते हैं,वैसा विचार,अपने शरीर को देखकर, कभी भी, एकबार भी विचार नहीं करते हैं।
भगवान श्री राम जी ने कहा कि - हे मुनिराज! देखिए न!
अपर्याप्तं हि बालत्वम्
क्रीडा के लिए,ये बाल्यावस्था ही अपर्याप्त है। अर्थात बाल्यावस्था में प्रत्येक वस्तु से क्रीडा करने का मन होता है। जागने से सोने तक, रात-दिन, एकमात्र क्रीडा करते हुए ही आनन्दित रहने की कामना रहती है। संतोषजनक क्रीडा के लिए,ये बाल्यावस्था का समय ही बहुत कम है।
बाल्यावस्था में क्रीडा करते करते,मन की तृप्ति ही नहीं हो पाती है। जहां जाते हैं, वहीं सर्वत्र ही क्रीडा करने का मन होता है। पत्थर,मिट्टी,काष्ट,कीड़े,मकोड़े,सांप,विच्छू,गाय,भैंस,स्त्री पुरुष,बालक, बालिका, युवा,वृद्ध,जो भी दिखाई देता है।उसी से क्रीडा करने लगते हैं।
बाल्यावस्था में, सम्पूर्ण पृथिवी का प्रत्येक स्थल क्रीड़ास्थल हो जाता है। प्रत्येक शरीरधारी जीव,क्रीडाकारक होता है। प्रत्येक वस्तु,क्रीडा का साधन बन जाता है। रात-दिन,एकमात्र क्रीडा ही होने लगता है। और इसके शिवाय कुछ भी नहीं।
कथावाचक विनोद जी महाराज ने कहा कि बाल्यावस्था की अबोध बुद्धि में,न गुण का ज्ञान होता है, और न ही, दुर्गुण का ज्ञान होता है। न तो हानि का ज्ञान होता है। और न ही,लाभ का ही ज्ञान होता है।इसीलिए तो सर्वत्र सर्ववस्तु,सर्वकाल सर्वस्थान ही क्रीडा के साधन होते हैं।
एक बालक बालिका को,क्रीडा के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य ही नहीं होता है। इतना खेलने के पश्चात भी,वह बाल्यावस्था ही,क्रीडा के लिए अपर्याप्त होती है। काल अर्थात समय भी अपर्याप्त होता है। क्रीडा की अतितृष्णा होती है। तृष्णा तो बाल्यावस्था से ही होती है। क्रीडा की अतितृष्णा ही पूर्ण नहीं हो पाती है। बलात् पिबति यौवनम्।
अभी तो बाल्यावस्था की क्रीड़ा से तृप्ति ही नहीं हो पाती है।तबतक युवावस्था आकर, बलात् अर्थात बलपूर्वक बाल्यावस्था को नष्ट कर देती है।
युवावस्था ने, प्रवेश करते ही, बाल्यावस्था की क्रीड़ा का नाश कर दिया। बाल्यावस्था की क्रीड़ा तृष्णा तो समाप्त ही नहीं हो पाई थी, कि - जबतक युवावस्था की तृष्णा ने प्रवेश कर लिया। बाल्यावस्था को, युवावस्था ने नष्ट कर दिया।
कथावाचक जी ने कहा कि अब युवावस्था की क्रीडा का प्रारम्भ हो गया। बाल्यावस्था की मूढ़ता ही विस्मृत हो गई। कितना खेला, कहां खेला,कबतक खेला, किस किसके साथ खेला,किसने किसने खेलाया, सबकुछ विस्मृत हो गया। युवावस्था के उन्माद के प्रवेश करते ही, बाल्यावस्था की तृष्णा का नाश हो गया।
कथावाचक विनोद जी महाराज ने कहा कि अब युवावस्था की तृष्णा का प्रभाव होने लगा। मनुष्य अपने गृहस्थ कार्यों में लगा था तब तक , वृद्धावस्था ने द्वार पर आकर,अपने आने की सूचना ही दे दी। "यौवनं हि जरा पश्चात्""
युवावस्था का समय ही इतना कम था कि - जरा अर्थात वृद्धावस्था ने आकर, युवावस्था का नाश कर दिया।
""पश्य कर्कशतां मिथ:""
भगवान श्रीराम ने कहा कि - देखिए तो मुनिराज! ये कर्कशता अर्थात कठोरता तो देखिए! युवावस्था ने, बाल्यावस्था का नाश कर दिया, और वृद्धावस्था ने आकर, युवावस्था का नाश कर दिया।
एक काल ही, दूसरे का काल बन जाता है। जब शरीर की ऐसी स्थिति होती जाती है, परिवर्तन होता रहता है, और इस परिवर्तन को स्वयं ही स्त्री पुरुष देखते रहते हैं, किन्तु इनके,न तो विवेक ही जगता है, और न ही तृप्ति होती है। और बुद्धि विवेक को नष्ट करके, सम्पूर्ण जीवन पर आधिपत्य स्थापित करके, सम्पूर्ण सृष्टि को अधीन कर लेता है। यही कारण है कि मृत्युलोक के लोगों को जाने का दुख तो बहुत होता है, किन्तु वैराग्य नहीं होता है। और यही तो माया की कर्कशता है। यही कठोरता है।